प्रजातंत्र में मानवाधिकारों का पोषण और प्रोत्साहन किसी सदगुण विचारक की रचना नहीं है , बल्कि मानवाधिकारों की उत्पत्ति भी तर्क के खास संयोजन से होती है / गहराई में झांके तो पता चलेगा की जिन विचारों को हम अपने धार्मिक और कर्म-कांडी सदगुण से ग्रहण करते है , प्रजातंत्र में जब धर्म-निरपेक्षता विचार की अनिवार्यता आती है , तब धर्म-निरपेक्षता के भी तर्कों के ख़ास संयोजन से नागरिकों के दैनिक व्यवहार में इन सदगुणों की अनिवार्यता को समझा जा सकता है / यानी अगर आप नास्तिक भी हैं तो धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र में आपको इन सदगुणों को किन्ही दूसरे तर्कों से गृहीत कर जीवन में पालन करना ही पड़ेगा / सदगुण जैसे की " बड़ों का आदर करो " को आम तौर पर एक रामायण से प्राप्त सदगुण मान कर जीवन में गृहीत करते है और क्यों-क्या नहीं पूछते / मान लीजिये की कोई नास्तिक है , तब क्या वह इस व्यवहार को अपनाने से विमुक्त होगा ? क्योंकि रामायण को तो मानेगा नहीं, और धर्म-निरपेक्ष प्रजातान्त्रिक व्यवस्था उसको विश्वासों और आस्थाओं की स्वतंत्रता देने के लिए बाध्य होगी की वह न भी माने तब भी वह सही है / ऐसे में अगर वह अपने माता-पिता का सम्मान नहीं करता है तब क्या राज्य-प्रशासन उसे बाध्य कर सकता है ?
हम सब ने यह देखा होगा की कैसे प्रजातंत्र की व्यवस्था में किसी भी 18 वर्ष से कम आयु के नाबालिग के हितो की रक्षा में सभी कानूनों और नियमो में ऐतिहात बरता जाता हैं / अगर किसी नाबालिग के माता-पिता उसका उचित पालन ना कारें तब उन्हें न्यायलय द्वारा बाध्य किया जा सकता है , अन्यथा न्यायलय उन्हें राज्य के संरक्षण में सौप देता है / इसके विपरीत किसी भी बालिग़ को अपने माता-पिता का ख्याल न रखने के लिए भी बाध्य कर देने के नियम हैं , नौकरियों में निर्भरता में बेरोजगार या आय-विहीन माता-पिता पर कई सहूलियतें प्रदान करी गयी हैं और अंत में राज्य द्वारा बुजुर्गों के संरक्षण की भी व्यवस्था है / पेंशन , प्रोविडेंट फण्ड , टैक्स रिबेट , यात्रा में रियायत , इत्यादि कई सुविधायें दी जाती हैं / धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था ऐसा जीवन और प्रकृति के कारणों से करती है , किसी कर्म-कांडी आस्थाओं और विश्वासों से नहीं / न्याय के तर्क फिर से व्यवस्था को बाध्य कर देते हैं , जो शायद सांप्रदायिक विश्वासों के कर्म-कांडो से विमुक्त होने के उपरान्त न करने पड़ते /
प्रजातंत्र में आप अगर नास्तिक हो कर सांप्रदायिक विश्वासों के कर्म-कांडो को ना भी माने तब भी प्रकृति के नियमो का पालन तो प्रकृति स्वयं ही करवा लेगी / स्वतन्त्र मनुष्य प्रकृति के नियमो से स्वतन्त्रता तो नहीं पा सकता ! और प्रजातान्त्रिक न्याय प्रणाली के नियम इन्ही प्राकृत के नियमो पर आधारित है /मानव अधिकारों का जन्म भी कुछ प्राकृतिक नियमो में से होता है /
मुद्दा यह है की श्रमिक क़ानून भी अन्य कानूनों की तरह प्राकृतिक नियमो में से विक्सित हुए हैं / इसलिए वह भी न्यायालयों द्वारा बाध्य किये जा सकते हैं , सरकारी नियम में वह चाहे ना हो /
दिक्कत तब आती है जब ग्रामीण जमीदारी व्यवस्था से आये लोग मानव-अधकारों और प्रकृति के नियमो की नासमझी कर उन्हें "सरकार" के दयालु-भाव में मान लेते है / "सरकार" व्यवस्था प्रजातान्त्रिक व्यवस्था से कहीं विपरीत व्यक्तव्य है / ऐसा वह इस लिए करते है क्यों की वह जमीदारी व्यवस्था में नियमो के अस्तित्व के तर्कों को " सरकार (=जमीदार) की मर्ज़ी " के तौर पर स्वीकार करते आये होते है / ज़मीदारी प्रथा में ज्यादा प्रश्न पूछने की सजा मृत्यु दंड हो सकती थी / इसलिए कई लोग तो प्रश्न भी नहीं पूछते थे , चाहे जीवन भर अज्ञानी -मूड़ भी क्यों ना रह जाएँ / अभी हाल में हुयी एक बहस , "क्या मौलिक अधीकार निराकुश होते है ? " के कारक को देखिये / मौलिक अधिकारों को राष्ट्र-रक्षण कारको में निरंकुश माना जाता है / मगर , मौलिक अधिकारों को निराकुश मान लेने पर सत्तारुड पार्टी की निति की विफलता को उसके 'व्यवस्था-का-अधिकार' मान लेने का भ्रम हो जायेगा / पश्चिमी प्रजातंत्रो में मौलिक अधिकारों को सिर्फ बहाय आक्रमणों की परिस्थिति में अन्कुषित किया जा सकता है , अन्यथा अंदरूनी अलगाव-वादी झगड़ो में भी नहीं / अन्दरोनी अलगाववाद जनता के स्वतन्त्र मन की चाहत के रूप में समझी जाती है /यही "व्यवस्था का अधिकार " मौलिक अधिकारों को प्रजातंत्र की बुनियाद से तब्दील कर के उदारवादी तानाशाही की "दयालु कृपा" बना देती है /
आश्चर्य है की अभी के राष्ट्रपति प्रणब मुख़र्जी के मत में भी मौलिक अधिकार निरंकुश नहीं होते / वह क्यों ऐसा सोचते हैं , इसका कारक खुद सोचने के लिए स्वतंत्र हैं/ असीम त्रिवेदी के जेल भेजने में भी लोक-सेवको ने यही "उदारवादी-भाव" की अपनी समझ का उदाहरण दिया था /
An ocean of thoughts,earlier this blog was named as "Indian Sociology..my burst and commentary". This is because it was meant to express myself on some general observations clicking my mind about my milieu...the Indian milieu. Subsequently a realisation dawned on that it was surging more as some breaking magma within . Arguments gave the heat to this molten hot matter which is otherwise there in each of us. Hence the renaming.
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