Who is an ‘expert’?
विशेषज्ञ (= Expert ) किसे कहते हैं ?
अंग्रेजी शब्दकोशों में अगर हम "विशेषज्ञ" शब्द का अर्थ ढूंढे तब हमे उत्तर यह मिलेगा की विशेषज्ञ उस किस्म के व्यक्तियों को कहा जाता है जो किसी विषय में कुछ ख़ास /विशेष ज्ञान रखतें हैं । यह ज्ञान को वह उस विषय से लम्बे अर्से से जुड़े होने (जैसे कि, कार्य करने) , शोध करने , पढ़ने या फिर पढ़ाने के कारणों से अर्जित करते हैं ।
'विशेषज्ञ' शब्द एक तरल विचार में प्रयोग होने वाली संज्ञा हैं । यह किसी व्यक्ति का नाम नहीं , जो एक संज्ञा-विशेष से दर्शाया जाता हैं । न ही यह एक शैक्षिक उपाधि है , जो किसी व्यक्ति से जुड़ जाने के बाद उसके साथ हमेशा के लिए रह जाती हैं । कोई भी व्यक्ति 'विशेषज्ञ' के रूप में पहचाना जा सकता हैं - मगर किसी ख़ास , संकीर्ण , छोटे क्षेत्र में । एक हलवाई खाना बनाने के क्षेत्र में कुछ ख़ास पकवान के लिए 'विशेषज्ञ' हो सकता है , और एक दूसरा व्यक्ति किसी एक ख़ास पकवान को लज्ज से खा-खा कर उसके संतुलित स्वाद को पहचानने में । यह आवश्यक नहीं हैं की वही व्यक्ति बाकी सब पकवानों के लिए भी 'विशेषज्ञ' हो ।
सामाजिक सन्दर्भ में हर एक व्यक्ति अपने आप में एक 'विशेषज्ञ' माना जा सकता है । बल्कि तर्क और विचारों की पलट-फेर में जा कर देखे तब यह भी बोद्ध होगा की वह व्यक्ति जो कुछ ख़ास नहीं जानते मगर हर विषय में थोड़ी-थोड़ी जानकारी रखतें है , वह भी 'सामान्य ज्ञान' के "विशेषज्ञ" हैं (an ''expert'' in 'general knowledge' ) ! एक कार-चालाक उस कार के लिए 'विशेषज्ञ' है । एक ट्रेन-चालक एक ख़ास मार्ग पर रेलगाडी चलाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है । इसलिए वह उस मार्ग का
विशेषज्ञ' माना जा सकता है । रेल के इंजन निर्माता के बदल जाने पर रेल चालक को नए इंजन के लिए फिर से प्रशिक्षण लेना होगा , हालाँकि मार्ग के लिए पहले ही प्रशिक्षित होगा । यहाँ "माना जा सकता' उप-वाक्य "विशेषज्ञ' शब्द की तरलता का सूचक है ।
यह आवश्यक नहीं है की 'विशेषज्ञ' ने उस विषय में कोई ऊंची उपलब्धि प्राप्त करी हो । न ही यह आवश्यक है की वह व्यक्ति जिसने किसी कार्य में कोई ख़ास उपलब्धि प्राप्त करी हो वह उस विषय का 'विशेषज्ञ' है । उदहारण के लिए- किसी दौड़ में प्रथम आने वाले व्यक्ति को हम दौड़ का विशेषज्ञ नहीं मान सकते क्योंकि उसकी जीत का कारण तो कुछ अन्य भी हो सकता है - जैसे की अच्छे-तंदरुस्त प्रतिद्वंदियों का अभाव , उनका थका-हरा होना , या कुछ अन्य।
इसके साथ ही, वह डॉक्टर जो कई बरसों से किसी बिमारी के मरीजों को देखता या इलाज़ करता आ रहा हो वह अब उस इलाज़ के लिए 'विशेषज्ञ' माना जा सकता हैं , भले ही उसने उस बिमारी के शैक्षिक विषय-वर्ग में कोई भी स्वर्ण पदक नहीं जीता था ।
अर्थात विशेषज्ञता का दर्ज़ा प्राप्त करने के लिए अधिक वर्षों का कार्य-अनुभव अधिक महत्त्व पूर्ण है, किसी ख़ास परीक्षा में ‘प्रथम’ होना नहीं । हाँ , यह मान्य होगा की 'विशेषज्ञता' किसी छोटे , संकीर्ण क्षेत्र की ही मानी जाएगी , सम्पूर्ण विषय-वर्ग में नहीं ।
विधि और न्याय में कला सम्बंधित विषयों में विशेषज्ञ की राय लेना न्याय करने में आवश्यक क्रिया होती है । एक चित्र कितना सुन्दर , कितना महतवपूर्ण , कितना दार्शनिक और अंततः नीलामी में कितने में बिक्री होगा -- यह तो एक 'विशेषज्ञ' ही बता सकता हैं। 'विशेषज्ञ' उसकी कीमत एकदम त्रुटी हीन नहीं बल्ताते हैं । वह मात्र एक 'लगभग' कीमत ही बतलाते हैं ।
यहाँ यह एक महतवपूर्ण समझ है की विशेषज्ञ से यह अपेक्षा करना की वह एकदम सटीक, त्रुटीहीन , जानकारी देगा -- यह एक मिथक है । विशेषज्ञ भी मात्र एक 'लगभग ' ज्ञान ही दे सकते हैं , जब तक की वह खुद उस क्रिया में खुद न शामिल हों । विशेषज्ञ केवल 'क्या हो सकता है , और क्या नहीं हो सकता है '-जैसी जानकरी ही देते हैं । इसे अंग्रेजी में Warranty कहते हैं। न्यायलय में विशेषज्ञ के ज्ञान का यही स्थान होता है -- अंतिम न्याय तो हमेशा न्यायधीश ही देता है , विशेषज्ञ नहीं । हाँ , न्यायधीश विशेषज्ञ की राए को ध्यान में रख कर ही न्याय देते हैं ।
दैनिक जीवन में जब भी हमे कोई संभ्रम हो रहा होता है , या कोई अनजान विषय-वस्तु से सम्बन्ध कर के जीवन निर्णय लेना होता है , हम सभी किसी 'विशेषज्ञ' की तलाश में लग जाते है । ऐसे में अक्सर कर के हम अपने जान -पहचान वाले , विश्वसनीय व्यक्ति को 'विशेषज्ञ' के रूप में मान्यता देता हैं । विशेषज्ञ की यह पहचान अक्सर हमारे 'विश्वास' से अधिक प्रेरित होती है , ज्ञान और तथ्यों से कम । मगर क्या करें , कोई अन्य संसाधन न होने पर इंसान के लिए 'विश्वास' ही एक मात्र सहारा होती है । ज्ञान और तथ्यों के अभाव में विश्वास को ही इस रिक्त स्थान को भरना होता है । यह एक प्राकृतिक नियम है , मनुष्यों को जीवन-दिशा देने के हक में । शायद इसीलिए कभी-कभी ज्ञान और तथ्य भी विश्वास के आगे हार जाते हैं , क्योंकि जब यह नहीं थे तब विश्वास ने ही मनुष्य को जीवन-दिशा दिया था ।
तथ्य , विज्ञानं और मान्यताओं के इस मंथन में एक विचार ऐसा भी है की अगर कर्म-कांडी धर्म और मान्यताएं एक अंध-विश्वास हैं, तब विज्ञानं भी तो "विशेषज्ञों" में अंध-विश्वास के समान है। हममे से कितनों ने कितनी बार किसी प्रयोगशाला में खुद से कोई प्रयोग कर किसी वैज्ञानिक तथ्य की पुष्टि करी है ? आखिर कर के हम सभी किसी अन्य व्यक्ति जिसे हम वैज्ञानिक बुलाते हैं , उसकी मान्यताओं में अंध-विश्वास ही तो कर रहे होते हैं ।
कर्म-काण्ड धर्म और विज्ञानं - किस्मे विश्वास करना और किस्मे नहीं इस दुविधा के समाधान में यह सहर्ष स्वीकार कर लिया गया है की 'प्राकृतिक नियमों से निर्मित वैधता और सत्यापन' (=Natural rules of validity and verification ) के तहत अगर कोई भी व्यक्ति इन प्रयोगों को करेगा तब उस दर्शन से प्राप्त समझ को 'विज्ञानं' कह कर बुलाया जायेगा । दुसरे शब्दों में "यथोच्चित पद्धति" (= due process ) से प्राप्त ज्ञान को 'विज्ञानं' बुलाया जाता है ।
यह एक अन्य , हास्यास्पद विचार हैं की ठीक इसी तर्क पर कर्म-कांडी धार्मिक लोग भी दूसरों को, और वैज्ञानिक विचारधाराओं को भी, धर्म-परिवर्तन के लिए प्रेरित करते हैं ।-- "एक बार कर के तो देखें । आजमा के तो देखें हमारा धर्म । "
शिक्षाविदों को 'विशेषज्ञ' के रूप में स्वीकार करना एक मान्य क्रिया है । न्यायलय में भी इसको आसानी से स्वीकार करा जाता है। इसका सीधा , सामान्यबोद्ध कारण है की वह विषयवस्तु से शोध सम्बंधित कार्यों से लम्बे अर्से तक जुड़े रहते हैं । यहाँ शोध शब्द पर बल देना ज़रूरी है , क्योंकि कभी-कभी व्यक्तियों का समूह मात्र सन्दर्भ-खोज (referencing research ) को ही शोध (pure research ) समझ लेते हैं । किसी अखबार , पुस्तक या इन्टरनेट के माध्यम से प्राप्त ज्ञान हमे विशेषज्ञ नहीं बनता है क्योंकि तब हम मात्र एक सन्दर्भ-खोज ही कर रहे होते हैं , कोई विषय-शोध नहीं जिसमे की हमे 'क्षेत्र दत्त-सामग्री' (field data ), या 'प्रयोग दत्त-सामग्री' (experimental data ), सिद्धांत की खोज (theorisation ) , अवलोकन (analysis ), इत्यादि करना होता है । हाँ ,सन्दर्भ-खोज भी शोध में उपयोग होने वाली डेटा-संग्रह (data collection ) की एक उप-विधि है ।
'विशेषज्ञ' का संलग्न विचार है 'सामान्य-ज्ञान' । हमे किसी विषय अथवा वस्तु पर सामान्य-ज्ञान की आवश्यकता होती , अन्यथा 'विशेष ज्ञान' की । कोई बात हमे या तो सामान्य बोद्ध से पता चलती है , अन्यथा हमे विशेषज्ञ की आवश्यकता होती है । पारस्परिक कूटनीति में, व्यक्ति अक्सर साधारण-बोद्ध के अभाव को किसी अन्य के द्वारा दिखलाये जाने पर उस व्यक्ति को 'विशेष ज्ञान ' होने का 'सम्मान दे कर' = 'आरोप' लगाते हैं । यहाँ विशेषज्ञता को सामान्य-बोद्ध से भ्रमित करा जाता हैं ।व्यक्ति एक कूटनीतिक व्यवहार के तहत सामान्य-समझ की उपेक्षा पर 'पकडे जाने' (=नवीन सामान्य-ज्ञान के आगमन ) पर दुसरे को 'विशेषज्ञ' होने का ओहदा दे कर वह मान-हानि, और अंततः "सत्ता-हरण" से बचने की कोशिश करते हैं ।
An ocean of thoughts,earlier this blog was named as "Indian Sociology..my burst and commentary". This is because it was meant to express myself on some general observations clicking my mind about my milieu...the Indian milieu. Subsequently a realisation dawned on that it was surging more as some breaking magma within . Arguments gave the heat to this molten hot matter which is otherwise there in each of us. Hence the renaming.
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