एटोर्नी जनरल, ज़ी ई वाहनवती जी ने CBI से सम्बंधित फैसले पर सर्वोच्च न्यायलय में अपनी दलील दे कर फिलहाल के लिए स्टे आर्डर ("ठहरना" का आदेश ) प्राप्त कर लिया है | यह ज़रूरी भी है क्योंकि जैसा की उन्होंने अपनी दलील में कहा -- सीबीआई आज एक ६००० से भी अधिक लोगों से सुसजित संस्था है , जो की आज भी १००० से भी अधिक केस को जांच कर रही है | गुवाहाटी हाई कोर्ट के फैसले यह सब के सब , और करीब ९००० फैसले प्रभावित होंगे |
एटोर्नी जनरल जी का मुख्य नजरिया यह है की गुवाहाटी हाई कोर्ट ने जो प्रश्न किया था वोह ही गलत था, फिर उन्होंने एक त्रुटिपूर्ण आधार से आंकलन किया , और एक त्रुटिपूर्ण समाधान प्राप्त किया . जो की उनका फैसला बन गया |
भारतीय मूर्ख्तंत्र की दिक्कत यह है की हमारा मीडिया भी तर्क, वाद-विवाद को सही से समाचार में कभी दिखाते ही नहीं है | उनको तो बस भाषणों को दिखाने की लत लग चुकी है और तर्क, वाद-विवाद तो खुद उनके भी मस्तिष्क में घुसता नहीं है , इसको समाचार में दिखाने की आवश्यकता इनके सहज बोद्ध में नहीं आने वाली| यह क्या जन -जागृती लायेंगे | दिक्कत यह है की जनता का विधि -विधान , नियमो के प्रति इसी अज्ञानता का लाभ उठाया गया है , और देश की सरकार ने ही सीबीआई बनाने वाले इस मुर्खता पूर्ण तरीके की ५० सालों में किसी को खबर ही नहीं लगने दी|
DSPE एक्ट कोई 7 सेक्शन वाला एक छोटा सा एक्ट है , जो मैंने खुद ही इन्टरनेट से डाउनलोड कर के पढ़ा | यह इतना संक्षिप्त है की एक या दो A4 साइज़ पेपर पर ही उतारा जा सकता | यह तो विवाद के परे है की आजादी से पहले का बना यह एक्ट मात्र दिल्ली पुलिस के स्थापन के लिए ही बना था , और केवल केंद्र शासित प्रदेशों के लिए| अब इस एक्ट में बनने वाली पुलिस संस्था का नाम भी तय था की वह दिल्ली पुलिस कही जाएगी | सीबीआई या इस तरह की कोई अन्य संस्था का इसमें कोई नाम या कल्पना भी नहीं थी | हाँ , इसके सेक्शन 2 में यह अधिकार दिए गए थे की किसी खास केस के लिए दिल्ली पुलिस अपनी सुविधा के अनुसार किसी अन्य व्यक्ति को भी पुलिस बना कर उसको पुलिस के सारे अधिकारों से सुसजित कर सकती है , उस ख़ास केस की जांच के लिए |
अब प्रश्न उठता है की इस सेक्शन 2 का उच्चारण कर के 1 अप्रैल १९६३ को सीबीआई कैसे बना दी गयी | साधारण समझ से सीबीआई आज एक वाकई में बहोत बड़ी संस्था है , और ऐसे में ज़ाहिर है की इस बड़ी और ताकतवर संस्था को बनाने के लिए देश की किसी न किसी विधेयक-पालिका को कोई विधान पारित कर के ही इसे बनाना चाहिए था , जिसके दौरान हुए तर्क और वाद-विवाद में ही सीबीआई की स्वतंत्रता , उसकी नियुक्तियों और उसकी आर्थिक स्वतंत्रता को विधिवत कर दिया गया होता| मगर ऐसा नहीं हुआ , और अब इसके बचाव में सीबीआई के अस्तित्व का विधेयक यह DSPE एक्ट का सेक्शन 2 माना जाने लगा है |
delegation of power प्रशासनिक विषयों में एक सन्दर्भ होता है जब हम किसी को अपने अधिकारों से सुसजित कर के कार्य करने का आहवाहन करते है | ऐसे में हम उसे अपने कई सरे अधिकार देते है , सारे अधिकार नहीं, जो की प्राकृतिक ज्ञान से स्पष्ट हो जाना चाहिए | हम खुद अपने कर्तव्यों से विमुख होने के लिए किसी को अपने अधिकार नहीं देते, वरन हमारी अनुपस्थिति में कार्य में बाँधा न आये इस लिए ही अपने अधिकारों को किसी अन्य को प्रस्तावित करते है | ज़ाहिर है, ऐसा करने में किसी की भी मंशा यह नहीं होती की वह खुद कर्तव्य विमुक्त हो जाये , और उसके व्यक्तिगत कार्य भी यह नया व्यक्ति ही देखने लगे |
तब क्या DSPE एक्ट के सेक्शन 2 का निर्माण विधेयक पालिका ने अपने कर्तव्यों से विमुक्त होने के लिए किया था , की 1 अप्रैल सन १९६३ को इसके प्रयोग से एक पूरी पूरी नयी संस्था सीबीआई बना दी गयी , जो की आज देश के लिए एक बड़ा सवाल तक बनी हुयी है ! DSPE एक्ट क्या किसी सरकारी कर्मचारी को यह हक देने के लिए बना था की जब चाहो एक नयी संस्था बना कर किसी भी राजनेता की , देश के किसी भी राज्य में जांच कर लेना !
इस के उत्तर में भारत सरकार का तर्क है की सन १९६३ में ही गृह मंत्रालय के एक तत्कालीन resolution (संकल्प) ने उस समय के सरकारी मुलाज़िमो को कुछ समय के लिए यह अधिकार दिया था की वह कुछ ऐसा कर सके ( सन १९६३ के इस resolution को मैंने अभी न ही प्राप्त किया है , न ही पढ़ा है ) | मगर गुवाहाटी हाई कोर्ट ने अपने फैसले में यह ज़रूर कहा है की सन १९६३ का गृह मंत्रालय का resolution भी स्वयं न ही किसी विधेयक पालिका से पारित था , और न ही इस पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर थे ! तब यह resolution भी किसने बनाया था, यह वैध है या अवैध - यह स्वयं भी संदेह के घेरे में है |
तो इस तरह से बनी देश की यह सर्वोच्च जांच संस्था |श्री आशीष खेतान , टीवी पर आने वाले एक जाने माने समाज सेवा कर्ता , के अनुसार देश की दूसरी जांच संस्थाओं जिसमे की intelligence bureau भी अत है , सभी के निर्माण में यह खामियां है | यानि यह सब की सब अवैध तरीके से ही निर्मित करी गयीं है , और इसलिए यह राजनैतिक दुरूपयोग का साधन बनी है |
अटॉर्नी जनरल जी का कहना है की यदि सीबीआई के निर्माण के केस में गुवाहाटी न्यायलय को कोई गलत संज्ञान दिया गया है , कोई असंबंधित कानून का व्याख्यान हो गया है, यह कोई ऐसा कानून भी कह दिया गया है जो विधेयक पालिका ने पारित नहीं किया , मगर वह समाज या देश के न्यायालयों में कही भी स्वीकृत किया गया हो , तब भी सीबीआई को अवैध नहीं माना जायेगा |
मेरा कहना है की यदि उनके वचनों में दी गयी समझ सीबीआई के निर्माण से पहले ही उस उच्च पदस्थ तानाशाही सरकारी अधिकारी ने 1 अप्रैल १९६३ को दी गयी होती, और यदि उसके बाद कभी संसद ने दिखा दी होती तब आज यह वचन अपनी सफाई में नहीं देने पड़ते | यानि, उनके यह विचार कर्म करने से पहले ही सोचे जाने चाहिए थे, अपने सफाई और फैसले की घडी में नहीं | यह साधारण समझ की बात है की इतनी बड़ी जांच संस्था ऐसे ही चलत में नहीं बनायीं जानी चाहिए थी |यह समझ भी कही लिखित नहीं हो शायद मगर कही न कही पारित ज़रूर होगी | शायद यह 'साधारण बोद्ध' आम आदमी के मस्तिष्क में दर्ज हो , वह जो ताकत और सत्ता से अँधा नहीं हुआ होगा | यह प्रजातंत्र में मुर्खता को बल देने की हरकत है | भारत मुर्ख तंत्र का निर्माण ऐसे ही हुआ होगा | अपनी कुछ समय पहले तक हम भारत को एक विशाल प्रजातंत्र समझ रहे थे | अब तो कुछ और ही संकेत जा रहे है |
यहाँ बंबई में 'कैम्प कोला' नाम की एक बिल्डिंग में पिछले पच्चीस सालों से रह रहे नागरिकों को निकल कर उस पर बने अवैध निर्माण के घरों को ध्वस्त करा जा रहा है |
An ocean of thoughts,earlier this blog was named as "Indian Sociology..my burst and commentary". This is because it was meant to express myself on some general observations clicking my mind about my milieu...the Indian milieu. Subsequently a realisation dawned on that it was surging more as some breaking magma within . Arguments gave the heat to this molten hot matter which is otherwise there in each of us. Hence the renaming.
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