यदि आप के विचार ऐसे हैं कि उनको सिर्फ गोपनियत में किन्हीं चुनिंदा लोगों के सामने ही प्रस्तुत किया जा सकता है, या कि आप के विचारों में से जन-कल्याण(Public Interest) के विपरीत के कर्म प्रवाहित होते हैं - तब फेसबुक औए ट्विटर जैसे सामाजिक विचार मीडिया आपके लिए उपयुक्त स्थल नहीं हैं।
सामाजिकता का प्रथम सूत्र न्याय है। जो सही होगा, जो उपयुक्त होगा उसको ही सब लोग स्वीकार करेंगे, और जो सही नहीं होगा उसको बहिष्कार करेंगे। मगर समाज में यह कहीं भी तय नहीं होता है की क्या-क्या सही माना जायेगा और क्या-क्या गलत माना जायेगा। समाज में जो तय है वह यह है कि सही और गलत का न्याय सभी लोग मिल कर करेंगे। यानी की न्यायायिक प्रक्रिया तय हो जाती है कि जन-सुनवाई का प्रयोग होगा।
जन-सुनवाई(Public hearing) न्यायायिक प्रक्रिया का सर्वोच्च सूत्र है।
अन्तराष्ट्रीय कानूनों और मानवाधिकारों में जन सुनवाई का कई बार उल्लेख है। न्यायालयों का दरवाजा खुला रखने के पीछे की मंशा यही से ही निकलती है कि कोई भी व्यक्ति कभी भी अन्दर आ कर प्रमाण परीक्षण क्रिया को देख सकता है और स्वयं को संतुष्ट कर सकता है कि सब कुछ यथास्थिति है कि नहीं। इसी सन्दर्भ से न्यायालयों का सामाजिक सम्मान स्थापित होता है।
एक वैकाल्पिक तर्क में लोग ऐसा समझ लेते हैं कि न्यायालयों का दरवाजा खुला होना का अर्थ है कि कोई भी कभी भी न्याय मांगने जा सकता है। यह इतना गलत तर्क नहीं है , हालाँकि यह केन्द्रीय विचार नहीं है। केन्द्रीय विचार पारदर्शिता से सम्बद्ध है।
पश्चिम के देशों में संसद और न्यायालयों दोनों का सीधा प्रसारण समूचे देश में दिया जाता है।
जनसुनवाई एक अनिवार्य न्यायिक कसौटी नहीं है, हालाँकि आवश्यक ज़रूर है। आपसी पारिवारिक मसले, बलात्कार इत्यादि ,राष्ट्रिय सुरक्षा सम्बंधित मसले इत्यादि पर जन-सुनवाई से रियायत मिलती है। मगर फिर यहाँ भी न्यायायिक प्रक्रियाओं ने तरीके इजाद कर लिए हैं की जन सुनवाई से वंचित होने की आवश्यकता नहीं पड़े। मूक साक्ष्य नियम( silent witness rule) इसी प्रकार कि एक पद्वति है जब राजकीय गोपनीय वस्तु को जन-सुनवाई देते हुए भी संरक्षित किया जा सकता है। इसमें आवश्यक सरकारी अफसरों से सिर्फ हाँ या ना के उत्तरों में साक्ष्य लिया जाता है। इसी तरह साक्ष्यों का कोड नामकरण एक तरीका है बलात्कार इत्यादि मसलों में जन सुनवाई करते हुए संरक्षण देने का।
जन-सुनवाई इतनी आवश्यक है कि जहाँ रियायत मिलती है तब भी वहां भी इससे वंचित होने से बचा जाता है।
सोशल मीडिया भी अनजाने में एक जन-सुनवाई की क्रिया ही निभाता है। इसलिए यदि आपके विचार सामाजिक न्याय के विपरीत हैं तब आप यहाँ असंतुष्ट, असहमत, या आरामदेह नहीं महसूस कर सकते है। साधारणतः लोग सोशल मीडिया पर जोक्स, चुटकुले, अपनी स्थिति, या कोई अलंकृत कथन 'शेयर' करते हैं। मूल सृजन की संरचनाएं बहोत कम मिलेंगी क्योंकि अधिकाँश लोग किसी अन्य की संरचना को सांझा(share) कर के ही काम काम चलाते हैं। 'शेयर' करने के अपने लाभ हैं जिसमे कि मूल सृजन के दौरान हुयी गलतियों की सामाजिक भर्त्सना से बचने का लाभ भी आता है। 'शेयर' में स्वयं के मस्तिषक का प्रयोग नहीं होता है बस अपनी भावना के लक्षण प्रसारित किये जाते हैं। फेसबूक का 'लाईक' विकल्प भी यही मकसद पूरा करता है।
-बल्कि शेयर और लाईक बटनों ने फेसबुक की आधी से आधिक आय प्राप्त करी होगी। यदि मूल सृजन ही एक मात्र विकल्प रह जाता तब तो सोशल मीडिया की दूकान ही नहीं चलती।
बरहाल बडा विचार है "जन सुनवाई"।
जन-सुनवाई से अभिप्राय कतई भी 'आम आदम' के बौद्धिक स्तर से समझे जाने वाले 'कल्याण' का नहीं है। 'आम आदमी' का अपना चरित्र दोष होता है और वह जीवन को भोजन, निंद्रा और मैथुन से प्रेरित प्रसंग में ही समझता है।
आम आदमी और जन-कल्याण में अंतर मानवीय भाव की उत्कृष्ट समझ का है। आम आदमी के बीच में इन्हीं से आये ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जो संप्रत्यय(conceptual, abstract) में देखते हैं और सिद्धांतों की तलाश करते रहते हैं।
सिद्धांतों द्वारा प्राप्त किये गए विचार व्यवहारिकता से प्राप्त समझ से भिन्न होते हैं। व्यवहारिकता की समझ में सूर्य धरती की परिक्रमा करता है क्योंकि मनुष्य के चक्षु इसी सत्य का दर्शन करते हैं। बौद्धिकता से प्राप्त सिद्धांत में धरती सूर्य की परिक्रमा करती है। यह चक्षु से प्राप्त सत्य के ठीक विपरीत है। जीवन पर नियंत्रण और सुधार सिद्धांतों सइ प्राप्त ज्ञान से होता है, व्यवहारिकता के ज्ञान से नहीं। व्यवहारिकता के ज्ञान में बारिश ऊपर बादलों से बरसती है और बादलों में पानी कहाँ से आया यह अबूझ हो जाता है। बौद्धिकता से प्राप्त ज्ञान वर्षा-जल-चक्र का ज्ञान देते हैं की बारिश का पानी उन्हीं स्रोतों से आता है जिन्ह पर वह बरस रहा होता है। जल संचय इसलिए आवश्यक क्रिया होती है।
तो जन कल्याण आवश्यक नहीं की वही है जो आम आदमी को चाहिए। इसमें बौद्धिकता - बुद्धि और इन्द्रियों के विशेषीकृत मिलन से प्राप्त सिद्धांत- भी अपना प्रभाव देते हैं।
संभव है की आपके विचार इस तरह के कई जन कल्याण सिद्धांतों से अनभिज्ञ होने की वजह से जन कल्याणकारी न हों। और इसलिए आपके विचारों पर सहमती नहीं बन सक रही हो। यह समझाना आवश्यक है की विचारों की अभिव्यक्ति पर रोक नहीं है, मगर आपके विचारों पर आम सहमति बन जाए यह भी आवश्यक नहीं है। विचारों के घर्षण के दौरान सिद्धांत और व्यवहारिकता आपस में संगर्ष में आते हैं। इसमें किसी का परास्त होना साधारण निष्कर्ष है।
यदि आप अपने विचार समाज में व्यक्त करने से ही कतरा रहे हैं तब यह आपका व्यक्तिगत चुनाव है। अभिव्यक्ति स्वतंत्र है। चुनाव आपका है की आपको प्रयोग करना है कि नहीं। यदि आपकी अन्तर्ध्वनि ही आपको विचार व्यक्त करने से रोक रही है तब शायद आप जन-कल्याणकारी विचार नहीं रखते हैं।
An ocean of thoughts,earlier this blog was named as "Indian Sociology..my burst and commentary". This is because it was meant to express myself on some general observations clicking my mind about my milieu...the Indian milieu. Subsequently a realisation dawned on that it was surging more as some breaking magma within . Arguments gave the heat to this molten hot matter which is otherwise there in each of us. Hence the renaming.
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