सिद्धान्तवाद में हास्य के लिए स्थान नहीं होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि कई बार सिद्धांतों को स्वयं भी तानों और जग हँसाई के बाच से ही गुज़र कर आना होता है। हास्य एक दिशाविहीन विचार प्रविष्ट कराते हैं और कभी-कभी तो यह सिद्धांतो के विपरीत को सत्य दिखलाने की त्रुटी कर देते हैं।
हास्य के दो प्रकार - ताना कशी ( एक प्रकार का नकारात्मक व्यंग्य) और उपहास (किसी की क्षमताओं पर लगे प्राकृतिक अंकुश के कारणों से एक नकारात्मक, निकृष्ट आनद लेना) - हास्य कहने वाले के, और हास्य के पात्र- दोनों पर ही शब्दों का दबाव बनाते हैं।
इतिहास में पलट कर देखें तो पता चलता है की फूहड़ हास्य ने कहाँ-कहाँ सिद्धांतों के साथ क्या त्रासदियाँ करी हुई हैं। जीवविज्ञानी डार्विन को ही लीजिये। जब डार्विन ने 'क्रमिक विकास' का सिद्धांत दिया था तब तत्कालीन ब्रिटेन के समाचारपत्रों ने डार्विन के बन्दर की शक्ल वाले व्यंग्य चित्र प्रकाशित कर के उन पर ताने कसे थे, कुछ ने डार्विन के पूर्वजों को बन्दर की शक्ल का दिखाया था, और कुछ ने डार्विन को इश्वर के स्थान पर बंदरों की पूजा करने वाला। सिद्धांत कितना सिद्ध निकला यह तब एक आशंकाओं से भरा भविष्य था मगर आज एक सर्व ज्ञात इतिहास है।
यही हश्र एंटी बॉडी टीके के अविष्कारक का हुआ था। कहने वालों ने ताने कसे थे की यह घोड़ों के लहू से इंसानों के मर्ज़ ठीक कर देने की बात कर रहे हैं।
हास्य जीवन का महतवपूर्ण रस है । ताने का हास्य तब एक सक्षम शब्द हतियार माना जाता है जब सामने वाला अड़ियल व्यवहार प्रदर्शित करे जिसे साधारण विचार विमर्श से भेदा नहीं जा सके। मगर दो पक्षों के मध्य तानों के वाक् युद्ध को आपसी संवाद का पूर्ण विच्छेदन समझा जाता हैं। राजनीति में यदि ताना-कशी ही दो पक्षों के मध्य समान व्यवहार हो जाए, तब समझ लेना चाहिए की सिद्धांतों का नाश हो रहा है और देश तबाही की ओर बढ़ रहा है।
साधारणतः राजनैतिक संवाद सिद्धांतों को तय करने के लिए ही होना चाहिए। संसद नाम की संस्था का निर्माण ही इसी उद्देश्य से हुआ है। राजनीति शास्त्र के विज्ञानं में संसद का कार्य और उद्देश्य ही यह है कि यहाँ सब जन-प्रतिनिधि विचार विमर्श करे और बहुमत के आधार पर देश चलाने के नियम बनाए। मगर जब विचार विमर्श अधिक लंबे होते हैं तब यह वाक् युद्ध बन जाते हैं, और फिर ताना कशी और उपहास । शायद अंत में यह पूर्ण विच्छेदन में आ जाते हैं।
कल्पना करिए एक ऐसे युग की जहाँ गैस के सिद्धांतों का अभी ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ था। वहां हास्य तो आदर्श गैस की कल्पना मात्र पर इतने ताने कसता की शायद गैस के सिद्धांतों की खोज संभव ही नहीं होती। शायद असलियत में यही कारण है की खोजी और वैज्ञानिक विचारधारा के व्यक्तियों को एकाकी जीवन गुज़ारना पड़ जाता है , - क्योंकि साधारण विचार, वार्तालापों और हास-परिहास में उनकों अपने विचारों के भंग हो जाने की आशंका लगती है।
हमारे संसदीय व्यवहार में हम फूहड़ हास्य की सिद्धांतों की विलीन कर देने वाली अवस्था से गुज़र रहे हैं। यदि तानों का जवाब तानों से ही होगा तब सिद्धांत तो खुद ही विलयित हो जायेंगे और देश बदहाली में आ जायेगा। शायद यही हो रहा है आज की राजनीति में। हास्य होते तो बहोत सरल है और मन-मष्तिष्क को खूब भांते हैं मगर हास्य में संवाद का मीठा ज़हर भी हो सकते हैं।
ऐसा नहीं हैं की हमे सदा गंभीर रहना चाहिए, मगर तीखे हस्यों से सतर्क रहना भी आवश्यक है । शायद दीर्घ कालीन विचार विमर्श से उत्पन्न गंभीरता हमारे विचार विमर्श को असफल बना देती है। मगर इसके प्रतिफल में उपजा तानों और उपहासो का हास्य भी कोई कम क्षतिपूर्ण नहीं होता। यह आपसी संवाद के पूर्ण विच्छेदन की निशानदेही है।
खुद ही विचार करिए कि क्या तानों और उपहासों के बल पर विजयी हुई पार्टी क्या कल संसद को चला भी पायेगी? और यह अंत में कर भी क्या रही है - सिद्धंतों का तिरस्कार । तब यह देश और देश वासियों को सामान न्याय और तर्क के आधार पर कैसे नियंत्रित करेगी? यही हास्य , ताने, उपहास और चुटकुले सुना कर के?
An ocean of thoughts,earlier this blog was named as "Indian Sociology..my burst and commentary". This is because it was meant to express myself on some general observations clicking my mind about my milieu...the Indian milieu. Subsequently a realisation dawned on that it was surging more as some breaking magma within . Arguments gave the heat to this molten hot matter which is otherwise there in each of us. Hence the renaming.
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