क्या आपने कभी टीवी पर आ रहे महाभारत धारावाहिक को देखा है?
श्री कृष्ण बार-बार अर्जुन को धर्म का ज्ञान देते समय 'सृष्टि' , 'समाज' और 'प्रकृति के नियम' जैसे शब्दों का प्रयोग करते सुनाई देते हैं। क्या सम्बन्ध, क्या प्रसंग है इन शब्दों का धर्म के साथ? कभी सोचा है?
प्रशासन नीति में यह शब्द जन कल्याण(public welfare), सामाजवाद(socialism) और साम्यवाद (communism) के विचारों का स्मरण कराते हैं। धर्म का सम्बन्ध एक अकेले मनुष्य से नहीं है , वरन् मनुष्यों के समूह से है। और धर्म तभी होता है जब पूरे समूह पर नीति एक समान क्रियान्वित होती है, किसी भेदभाव पद्दति से नहीं। अर्थात न्याय ही धर्म है। और धर्म तभी होता है जब सबका उत्थान एक साथ होता है।
इन्टरनेट पर एक विचार अक्सर सुनने को मिलता है- जिसमे एक प्रोफेसर अपने छात्रों को एक परीक्षा पत्र देता है। फिर उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन करने के उपरान्त वह सभी छात्रों के अंकों का औसत निकाल कर सभी को एक समान अंक दे देता है। इससे कुछ मेहनती छात्रों के अंक कम हो जाते है, और आलसी छात्रों के अंक बढ़ जाते हैं। कहानी अपने पाठकों पर यही प्रभाव छोड़ती है की प्रोफेसर का ऐसा करना अधर्म-पूर्ण था, और अन्याय था। यह क्रिया प्रशासन नीति में समाजवाद जैसे विचारों के समतुल्य थी, और इस प्रकार समाजवाद भी एक अधर्मी विचार है।
ऊपर लिखी कहानी श्रीकृष्ण के बताये धर्म के ज्ञान से थोडा विरोधाभास में है। क्योंकि इसके निष्कर्ष के अनुसार तो कोई भी जनकल्याण कारी कार्य किसी न किसी के साथ अन्याय होगा और अधर्म करेगा ! यह विचार इस कहानी में लिप्त भ्रान्ति की सूचना देता है।
विचार करिए की प्रोफेसर उन उत्तर तालिका के अंकों के अनुसार ही छात्रों को आगे की कक्षा में प्रवेश देता है। और वह ऐसा असंख्य बार करता है। तब फिर एक दीर्घकाल में उस कक्षा में कितने छात्र उपलब्ध होंगे? क्या उत्तर है? एक? तो क्या एक छात्र से भी कोई कक्षा बनती है? जी हाँ, जब एक ही छात्र रह जायेगा, तब वह कक्षा ही नष्ट हो जायेगीं । इन्टरनेट की कहानी में अर्धसत्य है। प्रोफेसर को छात्रों के अंकों का औसत करना अन्याय तो है, मगर कमज़ोर और पिछड़े छात्रों के लिए कोई विशिष्ट सुविधा भी बनानी पड़ेगी अन्यथा वह कक्षा ही नष्ट हो जाएगी। शायद प्रकृति में जैव-विविधता का यही उपयोग है। और प्रोफेसर को भी छात्रों की प्रतिस्पर्धा का नियंत्रण किसी प्रकार की विविधता के माध्यम से करना होगा अन्यथा सर्वनाश हो सकता है।
धर्म जन-कल्याण से जुड़ता है- यह सर्वमान्य है। इसलिए प्रशासन नीति में धर्म महत्वपूर्ण है, यह स्व-निष्कर्ष हैं। प्रशासन नीति वर्तमान तंत्र में दल-गत कूट नीति में से प्रफुल्लित होती है, जिसे हम politics कह कर बुलाते हैं। यदि दल-गत कूटनीति ही अधर्मी पथ ("जुगत-जुगाड़") से पूरित होगी तब इससे शासन में आया दल एक धर्म-संगत प्रशासन नीति कैसे निर्मित करेगा? कैसे वह जनकल्याण को प्राप्त करेगा? वह नीति निर्माण में स्वयं के अधर्म को बचाने की ही चेष्टा करेगा-यानि अपने हितों की रक्षा सर्वप्रथम करेगा।
यदि भारत जैसा प्राकृतिक संसाधनों में समृद्ध देश अपने अन्दर व्याप्त गरीबी और अपराध को नियंत्रित नहीं कर पा रहा है तब क्या उसके प्रशासन नीतिकारों की क्षमताओं और पद्धतियों पर प्रश्न नहीं उठता है? क्या यह दल-गत कूटनीति में व्याप्त अधर्म का नतीजा नहीं है?
An ocean of thoughts,earlier this blog was named as "Indian Sociology..my burst and commentary". This is because it was meant to express myself on some general observations clicking my mind about my milieu...the Indian milieu. Subsequently a realisation dawned on that it was surging more as some breaking magma within . Arguments gave the heat to this molten hot matter which is otherwise there in each of us. Hence the renaming.
अधर्म, दल-गत कूटनीति, और समाज में व्याप्त गरीबी तथा अपराध
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