ऐसा नहीं था की आज़ादी से पहले दिवंगत महापुरुषों की उपलब्धियों को नकार देना का इरादा था, मगर फिर समझदारी इसी में थी की दिवंगत लोगों को भारत रत्न दे कर असुविधाओं का पिटारा नहीं खोलना चाहिए था।
नोबेल शांति पुरूस्कार में भी मरणोपरांत यह पुरुस्कार नहीं दिए जाने की प्रथा इसी कारण से हैं।
खुद ही सोचिये, यदि आप मरणोपरांत लोगों को भी कोई सर्वोच्च पदक देना चाहेंगे, तो क्या रानी लक्ष्मी बाई, तांत्या टोपे, टीपू सुलतान, सम्राट अकबर और उससे भी पूर्व सम्राट अशोक इस पदक के हक़दार नहीं थे ??
पंडित मदन मोहन मालवीय जी का निधन ही आज़ादी से पूर्व हो चूका था। जब भारत रत्न पदक की स्थापना भी नहीं हुई थी,मालवीय जी अपनी उपलब्धियों को दर्ज करके जा चुके थे।
अब ऐसे में भाजपा को यह राजनैतिक कशमकश मचाने की क्या आवश्यकता थी कि मरणोपरांत के भी अति श्रेणी में जा कर, स्वतंत्रता पूर्व ही दिवंगत हो चुके महापुरुषों को भी यह पदक प्रदान करवाए।
किसी भी समाज सेवी श्रेणी का पदक का उत्तराधिकारी चुनना वैसे भी बहुत ही व्यक्ति-निष्ठ काम है जिसमे की जन संतुष्ठी कम,और मत-विभाजन अधिक होता है। जहाँ मत विभाजन है ,वहां "राजनीति गरम" अपने आप ही हो जाती है। "राजनीति गरम" होने से बचाव के लिए ही संभवतः हर एक पदक में उत्तराधिकारी के चयन में कुछ एक मानदंड रखे जाते हैं जो की वस्तु निष्ठ हो। मरणोपरांत नहीं दिए जाने का मानदंड किसी भी नागरिक सम्मान के लिए एक उचित मानदंड ही तो है।
तब फिर ऐसा क्यों न माना जाए की शायद भाजपा की शासित सरकार से इस मानदंड को ही भेद कर करी गयी यह हरकत का उद्देश्य ही "राजनीति गरम" करने का ही था?
ऐसा नहीं है की बनारस शहर से सामाजिक कार्यों के लिए भारत रत्न अभी तक किसी को मिला ही नहीं है। कितने लोगों ने बाबु भगवान् दास जी का नाम सुना है ,जो की भारत रत्न पदक के चौथे उत्तराधिकारी थे ? कितने लोगों को उनकी उपलब्धियां और योगदान का पता है।
श्रीमती ऐनी बेसंट द्वारा स्थापित theosophical society (धर्म और ब्रह्म विषयों पर चर्चा करने वाला समूह) के भारतीय संस्करण की स्थापना बाबु जी ने ही करी थी,वह भी बनारस शहर हैं। इस society का मुख्यालय अमेरिका के न्यू यॉर्क शहर में है। श्रीमती बेसंट के नाम पर बाबु जी ने बनारस में एक कॉलेज की स्थापना भी करवाई थी जिसे की आजकल 'बसंत कॉलेज' कह कर बुलाया जाता है। (भाषा कुपोषण और बौद्धिक विकृतियों के समागम से "बेसंट" शब्द हिंदी वाला "बसंत" हो गया है। )
काशी हिन्दू विश्वविधायालय के लिए भी इस कॉलेज ने बहोत योगदान दिया था। मालवीय जी की विश्वविद्यालय ने अपनी आरंभिक नीव central hindu college में डाली थी,जो की श्रीमती बेसंट ने स्थापित किया था।
वैसे जानकारी के लिए बता दें की शिकागो शहर में होने वाले "विश्व धर्म संसद" को भी यही Theosophical Society ही आमंत्रित करता था। किसी समय स्वामी विवेकानंद जी ने अपना बहुप्रचलित अभिभाषण "अमेरिका का मेरे बहनों और भाइयों.." यही पर दिया था । (वैसे क्या स्वामी विवेकानंद भी भारत रत्न के लिए उचित नहीं है, अब जब की मरणोपरांत भी यह पदक देने का पिटारा खोल ही दिया है ??)
बनारस से ही बिस्मिल्लाह खान जी को भी भारत रत्न से नवाजा जा चूका है।
और स्वतंत्र भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति डॉक्टर सरव्पल्ली राधाकृष्णन भी काशी विश्वविद्यालय के कुलपति थे जिन्हें की भारत रत्न प्राप्त है।
अभी तक भारत रत्न को स्वतंत्रता के उपरान्त के लोगों को ही देने की प्रथा थी। या वह जो की आज़ादी के बाद दिवंगत हुए। फिर यह 'बंद दरवाज़े' को बेवजह खोल कर राजनीति गरम करने की मजबूरी का अर्थ स्पष्ट रूप से राजनैतिक मुनाफाखोरी ही लगता है।
इससे पूर्व कोंग्रेस की केंद्र सरकार ने भी क्रिकेट खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर को यह पदक दे कर ऐसे ही एक बंद पिटारे को खोला था।भारत रत्न पुरस्कार की परिभाषा में परिवर्तन कर के उसे "शाबाशी पुरुस्कार" जैसे व्यक्तव्य में बदल दिया और तब इसे किसी भी क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय चर्चित भारतीय को प्रदान करने की व्याख्या कर दिया गया। फिर यह श्री सचिन तेंदुलकर को भी प्रदान किया गया जिनकी उपलब्धि मात्र क्रिकेट के रेकॉर्डों में हैं। अल्प-बुद्धि लोगों को श्री ध्यानचंद को भी हॉकी की उपलब्धियों के लिय भारत रत्न देने की "राजनीति गरम" करने के द्वार खुल गए हैं। उधर मिल्खा सिंह जी का नाम भी उठाने वालों ने उठा लिया है। "राजनैतिक माहोल गरम कर दिया गया है"।
श्री तेंदुल्कार आगे जा कर कांग्रेस पार्टी से ही राज्य सभा के चयनित सदस्य बने थे। इस परिभाषा परिवर्तन से पूर्व की परिभाषा में भारत रत्न को देश में सामाजिक परिवर्तन और उत्थान के लिए दिशा देने वाले समाज सेवा, कला अथवा विज्ञान के क्षेत्र की उपलब्धियों वाले लोगों को देने का मानदंड था। वैसे तो न्याय से वंछित और राजनीति से लबा-लब हमारे देश में भारत रत्न की पुरानी परिभाषा का भी कोई ख़ास सम्मान नहीं था। यह पदक अधिकांश तौर पर राजनेताओं को ही मिला था। डॉक्टर मोक्षगुण्डम विश्वेशरेया जी के उपरान्त किसी दूसरे विज्ञानं क्षेत्र की उपलब्धि वाले व्यक्ति सीधे प्रोफेसर सी एन आर राव ही हैं। भारत सरकार का ऐसा मानना है। !!!.
संक्षेप में समझें तो भारत रत्न पुरस्कार जितना अधिक व्यक्तिनिष्ठ बनता जायेगा, जितने अधिक वस्तु निष्ठ मानदंडों के बंद पिटारे खुलेंगे, यह पुरस्कार उतना ही राजनैतिक सरगर्मी वाला बन जायेगा और अपनी गरिमा को खो बैठेगा। लोग सीधे सीधे पदक के विजेताओं को उनकी निष्ठां को उनके प्रदानकर्ता राजनैतिक दल से जोड़ कर देखेंगे। तो फिर शायद आज़ादी के बाद जन्मे कई सारे राजनैतिक दलों की असल मंशा भी यही होगी। भाजपा भी वैसा ही एक दल है।
An ocean of thoughts,earlier this blog was named as "Indian Sociology..my burst and commentary". This is because it was meant to express myself on some general observations clicking my mind about my milieu...the Indian milieu. Subsequently a realisation dawned on that it was surging more as some breaking magma within . Arguments gave the heat to this molten hot matter which is otherwise there in each of us. Hence the renaming.
भारत रत्न पुरस्कार और इससे बढ़ती हुई राजनैतिक सरगर्मी
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