याकूब मेनन को मृत्यु दंड पर मुझे बहोत अपने देश की न्याययिक प्रक्रिया और बौद्धिकता पर अफ़सोस होने वाला है। मैंने यह पहले भी लिखा है, और आज भी वही दोहराता हूँ की न्याय ईश्वर की वाणी के समान दिव्य और निर्मल होना चाहिए। और जब कोई व्यक्ति अपने गुनाहों को अपने भीतर से स्वीकार कर लेता है तब उसमे ईश्वर की वाणी प्रबल हो चुकी होती है जो इस संसार में भी ईश्वरीय गुणों की रक्षा करती है।
याकूब ने स्वयं से समर्पण किया, और खुद से पाकिस्तान से भारत आ कर समर्पण किया था। मज़ाल की याकूब बंधुओं में से किसी एक को आज तक भारतीय पुलिस संस्था पकड़ पायी हो। याकूब ने स्वेच्छा से यह समर्पण करके अपनी अंतर्मन की शुद्धता का प्रमाण दिया है। आखिर न्याय का अंतिम चरम उद्देश्य यही हैं। यदि समाज को भय और अपराध मुक्त करना है तब ईश्वर के इसी अंश को प्रत्येक नागरिक में प्रज्वलित करना होगा। जहाँ यह प्रज्वलित हुआ है, उसे संरक्षण देना होगा।
मज़ाल की '93 ब्लास्ट के बाकी बड़े नामी गुन्हेगार को मृत्यु दंड दिया हो। आखिर संजय दत्त को कितने वर्षों की सजा हुई और क्यों हुई यह सबको पता है। यदि याकूब अपने कर्म को हालात के मद्देज़र सही भी मानता है तब भी याकूब गलत नहीं है। क्योंकि अयोध्या मस्जिद का ढहना कानूनी तकनिकी रूप में गलत ही था, और जिसके लिए अभी तक किसी भी बड़े नाम व्यक्ति को सजा नहीं हुई है।
याकूब अपने भाइयों में एकमात्र पढ़ा लिखा व्यक्ति था, और वह भी चार्टेड अकाउंटेंट। आप सब यह समझेंगे की देखो इतना पढ़ा लिखा हो कर भी उसने इस तरह का कर्म किया। मगर में यह देखूँगा की किस प्रकार की सामाजिक और आर्थिक स्थिति से आ कर उसने यह शिक्षा प्राप्त करी और आखिर कर उसने कितने चरम परित्याग् से इसका मूल्य चुकाया है। आत्मसमर्पण। आज के ज़माने में ज्यादातर पढ़े लिखे लोग कानून तोड़ने में ज्यादा कुशल हैं, और इसी '93 ब्लास्ट की घटना के इर्द गिर्द भी हमें वही मिसाले मिलती है। बड़े नाम के लोग जान बूझ कर , बड़ी निर्लज्जता और बालक जैसे उन्माद में कानून तोड़ने वाले कर्म करते हैं, अपनी गलती को स्वीकार नहीं करते हैं, और फिर तमाम दुनियादारी के हथकंडे लगा कर बच निकलते हैं। सामाजिक अंतरात्मा इतनी कमज़ोर नहीं है की सत्य का भावुक आभास भी न लगे प्रजा को। आखिर न्याय का उद्गम स्थल सामाजिक अंतःकरण ही होता है।
याकूब की गलती का एहसास इन्हें क्षमा का सबसे उपयुक्त पात्र बना देता है। कारावास में इनके आचरण के समाचार इस विचार को पुख्ता करते हैं। मुझे अफ़सोस होगा यदि अभी भी मृत्युदंड दिया गया तो।
An ocean of thoughts,earlier this blog was named as "Indian Sociology..my burst and commentary". This is because it was meant to express myself on some general observations clicking my mind about my milieu...the Indian milieu. Subsequently a realisation dawned on that it was surging more as some breaking magma within . Arguments gave the heat to this molten hot matter which is otherwise there in each of us. Hence the renaming.
याकूब को फांसी -- अंतरात्मा की हत्या
येलो जर्नलिज्म -- एक्सक्लूसिव, विशेष और कैंपेन के पीछे के कूटनीति
अगर टीवी पत्रकारिता में "येलो जर्नलिज्म"(yellow journalism) अपने को समझना है तो इन "एक्सक्लूसिव"(exclusive) और "मोर्चाबंदी /कैंपेन"(campaign) वाले कार्यक्रमों से रची गयी महिमा को समझिये।
येलो जर्नलिज्म की प्रकृति ही इन आचरण पर सिद्ध होती है की कहाँ टीवी जर्नलिज्म चुप रह जाता है, और कहाँ वह मोर्चाबंदी कर देता है।
[yellow journalism= पैसा और धन के बल पर अपने पक्ष के समाचारों को बढ़ा चढ़ा कर प्रसारित करवाना, और अपने विरोधियों को संतुलित स्थिति से कहीं अधिक बदनाम करवाने वाले समाचार प्रसारित करवाना]
Linguistic Inability: Respectfulness or Courteousness ?
It was disheartening to listen to a lawyer's views who was teaching-talking to his class about being Respectful to seniors. The lawyer-cum-teacher spoke from his personal life experiences that respectfulness brings you a lot of success. Elaborating it further, he said that even where you have a Right - fundamental, legal, or moral- you should still be respectful, and instead of making a demand for enforcement of your right, you should make a request from your senior to please grant you that Right.
I had an intuitive feeling for long time that the legal academia in India is disturbingly poor. Today I was faced with one such product of the ruined education culture which perhaps has emerged from a combined effect of 1000 years of slavery, syncretic culture, as well as a generation of caste-based oppression.
In my observations, the deepest damaging impact which the slavery, syncreticism and caste-based mutual oppression has left on our generation of citizens with is-- the Mutilated Conscience. Our Conscience has twisted, bent and corrupted our mental abilities too, herein about the Linguistics, which in turn has made us conduct crookedly without any awakening, inner voice call.
Its the conscience which has made us behave naturally subjugated to the use of English Language; and it has caused our generation to suffer certain mental linguistic disabilities 【Austism spectrum of mental inability, such as the Semantic Pragmatic Disorder (SPD), Pragmatic Language Inability (PLI)】 in which the words don't mean what is intended, and vice versa,-- what is intended is not spoken in the right, lucid vocabulary.
In my view, the lawyer teacher should have talked about a general courteous behaviour, instead of the "respectful" behaviour. From the descriptions of what he called as "respectful", an average Indian student coming from a rural, unpolished setup would draw a lesson which most closely would that be of a chained pinion groveling in the dust.
A slightly thoughtful mind would feel pressed to question himself if Respect is meant only for the senior, or even to the juniors? or worse, to the strangers too? What then was the good sense of the word Respect that the lawyer-teacher was wanting to speak of ? Would not a disrespectful behaviour to junior amount to bullying or harassment , which are illegal unto themselves? Did the lawyer not realize this aspect of the general Respect which he was talking about?
A general courteous behaviour is a human call, and in legal logic, it serves the purpose of saving the loss of sense of one's arguments before his esteemed opponent,and the honourable court. Doesn't it ? Sans the courtesy, every one will be cautioned to look for other alternate meanings, without feeling obliged to asking you to explain yourself.
Perhaps what the lawyer-techer should have been addressing his class was about Courteousness, not Respectfulness. A lawyer is expected to be brutally truthful, and unhesitant to criticize whatever was wrong in his beliefs. A lawyer is also expected to serve the society by spreading legal consciousness among the citizens, and help them secure their constitutional and legal rights. A right begged from someone by being respectful is not a good lesson to teach. What needed be taught is about remaining civil and courteous even while DEMANDING for your Rights. A lawyer in his career span may often be required to hard-insist upon some of his arguments. Where does the instance of Hard-insistence count ? Disrespectfulness, or simple discharge of lawyer's duties?
Further, what value is the event of Disrespectfulness from the Justice point of view ? Can and should a person be denied his Right on the grounds of not being Respectful while arguing for it ?
The lawyer-teacher was more more than inadequate to my inner fulfillment.
पेशे से वकील, उस अध्यापक के विचारों को सुन कर मन को कष्ट हुआ जिन्हें की वह कक्षा में विधि विधान के पाठ के रूप में सुना रहा थे।
वह अपने जीवन अनुभव की बात करते हुए कह रहा था कि अपने से बड़ों को सम्मान(respect) देने से वकालत जीवन में बहोत उपलब्धियां प्रात होती हैं। अध्यापक ने यह भी कहा की आपको सम्मान(Respect) उन जगहों पर भी देना चाहिए जहाँ आप अपने अधिकार को सुरक्षित करने की बात करना चाहते हों। इसलिए अधिकार माँगने की बजाये अपने से बड़ों को सम्मान देते हुए अधिकारों को संरक्षित करने के लिए प्रार्थना करिये, गुज़ारिश करिये।
आगे उसने कहा की कभी अपने जीवन में अपने से बड़े लोगों को बहोत-बहोत सम्मान दे कर देखिये,-- आप अत्याधिक सफलता का अनुभव करेंगे। आपका जो काम यथाविधि संभव नहीं था, वह भी पूर्ण हो जायेगा।
मेरे विचार में वकील-अध्यापक एक भाषाविज्ञान त्रुटि कर रहा था। जहाँ शालीन(decent) या भद्र(civil, courteous) शब्द का प्रयोग होना था, वहां वह सम्मान(respect) शब्द का प्रयोग कर रहा था। फिर, शब्द की अदला-बदली हो जाने से विचारों की रेलगाड़ी पटरी बदल कर किसी और ही स्टेशन पर चल निकली थी। उसके विचारों को सुनते ही मन में एक कटाक्ष आ रहा था कि यदि वह कहता है की अपने से बड़ों को सम्मान देना चाहिए, तो क्या हमें अपने से छोटों को सम्मान नहीं देना चाहिए? अपने से छोटों से हमें कैसा व्यवहार करना चाहिए? और किसी राहगीर अनजाने से कैसे व्यवहार करना चाहिए? क्या वहां सम्मान नहीं देना चाहिए ?
बार बार मुझे स्मरण आता है की हमारा देश भारत करीब एक हज़ार साल की गुलामी के बाद मुक्त हुआ है। हमारी संस्कृति "गंगा जमुनवि" है जो की एक साथ दो विरोधाभासी विचारों को समर्थन करती है, यानि भेदभाव और पक्षपात हमारी संस्कृति का अंश है। हमारा समाज सदियों से जाति-गत भेदभाव वहन करता आया है। इन समस्त कारणों ने हम भारतियों में बहोत सारे चरित्र दुर्गुण पैदा कर दिए हैं। इन द्वेषों के प्रभाव में सबसे ज्यादा विभित्स हमारी अंतरात्मा हुयी है, जिसने की अब धूर्त और कुटिल तर्कों और विचारों को जीवन का सत्य माना अपनी आदत बना लिया है।
हमारी अंतरात्मा की मूर्क्षा ने हम लोगों में कई सारी मानसिक अक्षमताएं उत्पन्न कर दी हैं। भाषाविज्ञान जनित अयोग्यता उन अक्षमताओं में से एक है। यह एक किस्म की आटिज्म सप्तरंग विकृति है - जैसे कोई प्रयोगार्थक भाषा विकृति, या कि Semantic Pragmatic Disability. इसमें प्रयोग करे जाने वाले शब्दों का अर्थ यह तो वह नहीं होता जो उद्देशित होता है, या फिर जो वास्तविक मंशा होती है उसको दर्शाने वाले शब्दों का चुनाव ठीक से नहीं कर पाते हैं। अध्यापक भी कुछ पल के लिए उन्हीं अयोग्यताओं से पीड़ित होता हुआ लग रहा था।
अध्यापक को कक्षा में भद्रता का पाठ सिखाने की आवश्यकता थी, सम्मान देने का पाठ की नहीं। कभी कभी मैं सोचता हूँ की ग्रामीण क्षेत्रों से आये छात्र 'किसी अपने से बड़े व्यक्ति को सम्मान देने' का भाव ज़मीन पर लोट कर गिड़गिड़ाने से तो नहीं निकाल लेंगे। क्योंकि यदि वकील भी यह पाठ सिखाये की अधिकार माँगना नहीं चाहिए, बल्कि गुज़ारिश करना चाहिए, तब फिर गाँव की जमीदारी भुगत कर आये व्यक्ति स्वाभाविक तौर पर पुनः अदालत की प्रक्रिया और कार्यवाही में भी उसी जमीदारी व्यवहार की कल्पना करेंगे। "अपने से बड़े" का अर्थ उनकी सीमित कल्पना क्षमता में वापस उनके गाँव के ज़मीदार जी से विस्थापित कर देगा।
अध्यापक , चूंकि वह पेशे से खुद भी एक वकील था, क्या उसने एक बार भी नहीं सोचा की किसी भी नागरिक को उसके संवैधानिक और न्यायिक अधिकारों से एक लिए वंचित किया जा सकता है की उस नागरिक ने किसी को "सम्मान" नहीं दिया ?
किसी व्यक्ति द्वारा अपने तर्कों और विचारों की कठिन, पुनरावृत्त और मज़बूत गुहार लगाने को क्या यह अध्यापक एक असम्मानजनक व्यवहार मानते हैं ? ऐसा अक्सर देखा गया है की जहाँ सम्मान को न्याय तुला में स्वीकृत पक्ष मान लिया जाता है वहां लोग पुनरावृत्त गुहार लगाने को भी असम्मानजनक आचरण जाता कर अन्याय को पारित करवा लेते हैं। एक वकील को तो अपने पेशेवर जीवन में कई बार पुनरावृत्त और सशक्त गुहार करनी पड़ती है। इसे अपने कर्तव्यों का निर्वाह मानेंगे या फिर असम्मानजनक आचरण ?
वह अध्यापक मेरे चित्त को शांत कर सकने में बहोत अपर्याप्त था।
प्लूटो ग्रह की समीप यात्रा
शासन शक्ति प्राप्त करने के लिए करी जाने वाली कुटिल प्रतिस्पर्धा और अंतरिक्ष अनुसन्धान के मध्य एक समानता यह है की दोनों ही कार्य सम्पूर्ण अज्ञानता में आरम्भ करे जाते हैं।
प्लूटो गृह की मानव निर्मित यान द्वारा प्रथम समीप-यात्रा के दौरान एक बार फिर मनुष्य जाती ने अपनी अज्ञानत का बोध किया है। विशाल ब्रह्माण्ड में आज भी करीब करीब सारे ही छोर हमारे लिए अज्ञात और अचम्भे से भरे हुए हैं।
किसी भी अंतरिक्ष अनुसन्धान की नीव सर्वप्रथम किसी भी रोचक तथ्य के दृष्टिमान होने से होती है। उसके पश्चात, अपने द्वितीय कदम में अनुसंधानकर्ता उस रोचक तथ्य के इर्द गिर की तमाम अन्य जानकारियों को एकत्र करके हैं। इसके लिए वह अपने पास उपलब्ध तमाम वैज्ञानिक उपकरणों का प्रयोग करते हैं। जैसे की उस रोचक विषय वस्तु की तापमान ऊर्जा त्वरित कैमरों के द्वारा तसवीरें उतारना, सूक्षम कर्ण यंत्रों द्वारा उस विषय वस्तु के निर्माण तत्वों का ब्यौरा तैयार करना, उस विषय वस्तु की प्रचुरता को भूमंडल में तलाशना, उस विषय वस्तु से मिलते जुलते अन्य वस्तुओं का ख़ाका तैयार करना, यहां धरती पर उससे मिलते जुलते दृश्यों का एक ब्यौरा तैयार करना, इत्यादि।
इसके बाद अपने तृतीय कदम में अनुसंधानकर्ता कई सरे काल्पनिक सिद्धांत, अनेक प्रत्यय ,यानि Hypothesis , को निर्मित करते हैं की वह विषय वस्तु किस किन संभावित कारणों से हो सकती है। यहाँ प्रत्येक वैज्ञानिक का अपना एक प्रत्यय हो सकता है , जो की वैज्ञानिक टीम के हर एक सदस्य से पूरी तरह भिन्न हो सकता है। हर कोई अनुसंधानकर्ता किसी गोष्ठी के द्वारा अपने अपने प्रत्यय को सभी सदस्यों के साथ सांझाँ करता है। इसके लिए यह लोग कई सारी प्रतिष्ठित मगज़ीनें, प्रकाशन, पत्रिकाएं, और यहाँ तक की समाचार पत्रों का भी उपयोग करते हैं।
इसके दौरान वैज्ञानिक समूह आपसी वाद-विवाद, विचार विमर्श में सम्भावना-इंकार पद्धति के द्वारा कई सारी निम्म-संभव प्रत्ययों को खारिज कर देता है, और सिर्फ उच्च-संभव प्रत्ययों की आगे के अनुसन्धान और पुष्टि के लिए स्वीकृत करा जाता है।
चतुर्थ कदम में, अनुसन्धान के भविष्य के उपकरण, प्रयोगशाला मॉडल जांच, नए सेंसरों का निर्माण इन्ही प्रत्ययों की पुष्टि करने के मद्देनज़र करा जाता है।
वर्तमान काल में अंतरिक्ष अनुसन्धान का कार्य मानव बुद्धि के प्रयोग का सर्वोच्च चुनौती शिखर प्रदान करता है। अंतरिक्ष अनुसन्धान में कला, विज्ञान, मानवता, और जितने भी अन्य विषयों को आप सोच सकते हैं, सभी का उपयोग होता है। फिलहाल यह क्षेत्र आपसी कूटनीति से मुक्त कार्य भूमि है।
क्या केमिकल लोच्चा है भक्तो की बुद्धि में -1 ...!
कहीं कुछ तो "कैमिकल लोच्चा" है भक्तों की तर्क बुद्धि में। वह विपरीत मायने वाले तर्कों को एक साथ अपने तीरों के तुरिण में रखना चाहते हैं।
अब इस स्वच्छता अभियान को लीजिये। कांग्रेस के कार्यकाल में भी टीवी पर नागरिकों को स्वच्छता का पाठ देने के लिए जनहित सूचना प्रचार आया करते थे। फिर क्या हुआ, ज़रा गौर करें...
नरेंद्र भाई के प्रधानमंत्री बनते ही भक्तों ने यहाँ पर एक अजीबोगरीब तर्कों वाली कारीगरी करी हैं। पहले तो, 02 अक्टूबर 2014 को नरेंद्र भाई ने स्वच्छता अभियान छेड़ा। अब इस अभियान के तहत नागरिकों को पाठ और प्रेरणा देने की बजाये "टैग" करने का चलन निकाला गया, कि जिसको जिसको टैग किया गया है वह जाकर खुद झाड़ू उठा कर लगाये। चलिए ठीक है..
हद तब हो जाती है जब नरेंद्र भाई के भक्त नागरिकों की कूड़ा फेकते हुए तस्वीर सोशल मीडिया पर डालने लगते हैं , नरेंद्र भाई के बचाव में टिप्पणी लिखते हुए कि देखिये नरेद्र भाई अकेला क्या क्या करेगा !
बात कुछ ऐसी हो गयी की किसी अबोध बालक को जब पढ़ना लिखना सिखाया जा ही रहा था, तब शिक्षका के स्थानांतरण के पश्चात अचानक से बालकों की पढाई लिखाई रोक कर परीक्षा लेने लग गए। और जब बालक असफल हो गया तब उसी पर नालायकी और मेहनत नहीं करने का छींका फोड़ दिया गया । !!!
नगर निगमों में व्याप्त भ्रष्टाचार नियंत्रण में लेने की बात विलीन कर दी जाने लगी है। म्युनिसिपल स्कूलों से लेकर निजी स्कूलों में दैनिक कचरै को निपटारण को छात्रों को प्रशिक्षित नहीं किया गया है, म्युनिसिपल संस्थाओं ने कचरे को ठिकाने लगाने की योजनाएं अभी तक निर्मित नहीं करी हैं, और न ही नागरिकों को उस योजना के अंतर्गत प्रशिक्षित किया गया है, शौचालय सभी नागरिकों के पहुँच तक नहीं आये हैं...और असफलता का छींका वापस नागरिकों पर ही फोड़ना शुरू कर दिया है मोदी भक्तों ने !! अगर येह ही परिणाम देने थे तब स्वच्छता अभियान छेड़ा ही क्यों ..?
(भाग 2)क्या केमिकल लोच्चा है भक्तों की बुद्धि में -.....!!
अब यह "केमिकल लोच्चा" वाले भक्तों की बुद्धि में भाजपा के नागरिकों को स्वावलंबी बनने के पाठ को देखिये।
आरम्भ से ही भारत गुलामी के दौर से निकला एक गरीब देश रहा है। कांग्रेस पार्टी ने तो 60 साल गरीबी हटाओ नारे के तहत ही सारे भ्रष्टाचार कर्मकाण्ड कर डाले हैं।
ज़रा गौर करें की अब भाजपा और नरेंद्र भाई अपने युग में इस गरीबी हटाओ को किस तर्को में प्रस्तुत कर रहे है। यहाँ गरीबी का निपटारण करने की बजाये गरीबी का छींका नागरिकों के सर पर फोड़ देने का प्लान है। भाजपा शायद यह तर्क प्रस्तुत करना चाहती है की गरीबी इस वजह से है की नागरिक वर्ग आलसी है, मेहनत से दिल चुराता है, कामचोर है, मुफ्तखोरी करना चाहता है। यानि, भाजपा के तर्कों में देश में व्याप्त गरीबी का कारण प्रशासन की असफलता और व्यापक भ्रष्टाचार नहीं है..बल्कि नागरिक खुद ही हैं।
आरएसएस, भाजपा समर्थक, और मोदी भक्तों की मनोवृति को पालने वाली भूमि
आरएसएस द्वारा संचालित विद्यालयों की श्रृंखला, सरस्वती शिशु मंदिर , के अंदर के माहोल के बारे पढ़ कर बहोत कष्ट हुआ। वैसे भाजपा समर्थक , मोदी भक्त और आरएसएस के लोगों के तर्क, विचार और दृष्टिकोण को देख-समझ कर मुझे पहले ही संदेह हो रहा था की किसी असामाजिक, कट्टरपन्ति मानसिकता के परिणाम में ऐसे लोग इतनी बड़ी जनसँख्या में इस देश में खड़े हैं, और वह भी प्रशासन के महत्वपूर्ण पदों तक पहुँच चुके हैं। एक सुनियोजित शिक्षा प्रणाली के माध्यम से ही दुनिया के तमाम बदलावों को दरकिनार करके, विभिन्न धर्मों की नैतिकता और मूल्यों को धात दे कर ऐसी कुटिल(crooked) मानसिकताओं को प्राप्त किया गया है।
गर्व और अभिमान में अंतर होता है। जो आरएसएस का प्राचीन वैदिक धर्म के बारे में दृष्टिकोण है वह अभिमान है, गर्व नहीं। आरएसएस की स्थापना और मुख्य सञ्चालन जाती-ब्राह्मणों के हाथों में रहा है, जो की स्वयं को दूसरे वर्णों से अधिक श्रेष्ट, बुद्धिमान और सिद्ध मानते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो वह वर्ग जो की खुद अभिमान नाम के मनोविकार से पीड़ित लोग हैं। तो किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिए की उनकी संस्थाओं ने भी जिस रूप के राष्ट्रवाद और नवयुग भारत की कल्पना करी है वह स्वयं भी अभिमान के मनोविकार से उत्पन्न साक्षत्कार है।
अभिमानी व्यक्ति अकारण दूसरे से हिंसा करता है, क्रोध करता है, स्वयं को श्रेष्ट मानता है, विनम्रता नहीं रखता, दूसरे द्वारा दिए गए सम्मान व्यवहार को अपना अधिकार समझता है। यह सब असामाजिक आचरण हैं जिनसे कोई सभ्य समाज को स्थापित कर सकना संभव नहीं है।
आरएसएस भी 'शक्तिशाली भारत' की कल्पना किसी परमाणू हथियारों से लेस देश से करता है जो की अपने प्रतिद्वंदी, जो की पाकिस्तान है, को मसल कर खाक कर देने को उत्तेजित दिखने में विकृत आनंद अनुभव करता है। नरेंद्र मोदी के भाषणों में, चरित्र में, वस्त्र में और सेल्फ़ी फ़ोटो लेने की आदतों में यही विकृत मानसिकता और उससे प्राप्त आनंद की लत दिखाई पड़ती हैं। भक्तों का यही हाल है। जाहिर है की वह बहु-मापदंड न्याय के अनुपालक है, और समानता को विकृत रूप में समझते हैं।
आरएसएस के स्कूलों में जिस कदर वस्त्रों पर, मेल जोल पर, बात व्यव्हार पर रोकटोक होने का अहसास मिला, समझ में आ गया की यह मनोविकृत किस प्रकार इतनी बड़ी आबादी में उत्पन्न करी गयी है। आरएसएस के यह आचरण न सिर्फ स्कूल बल्कि बच्चों के घर तक और व्यक्तिजीवन प्रसारित है। लड़कियों को स्कूल के बाद भी जीन्स पहनने पर अप्रत्यक्ष रूप से प्रताड़ना देकर एक व्यापक सन्देश दिया जाता है की व्यक्तिगत जीवन में स्कूल क्या चाहता है। लड़की लड़कों में मेल जोल स्कूल को सख्त नागंवारा है। टीचरों से, बड़े सहपाठियों से व्यवहार तक नियंत्रित किया गया है। दैविक आस्था को सांप्रदायिक प्रतीक बता कर कच्चे मस्तिष्क में ठूस दिया गया है।
कोई आश्चर्य नहीं है की आरएसएस और भाजपा सेकुलरिज्म यानि पंथनिरपेक्षता के चरम विरोधी बन कर उभरे हैं। माना की कांग्रेस पार्टी ने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर तुष्टिकरण किया था, मगर उसके प्रतिउत्तर में जो भाजपा और आरएसएस कर रहे हैं वह मध्य युग का अंधकार समाज को दुबारा अस्तित्व में ले आएगा। प्रजातंत्र और सेकुलरिज्म का सम्बन्ध अटूट होता है। उसके साथ छेड़खाड़ करने पर दूसरा स्वयं ही नष्ट हो जायेगा।
चाहे जितना भी कोई देश अपने धर्म का अनुयायी दिखने की कोशिश कर ले, मगर वर्तमान युग सेकुलरिज्म का ही युग है। अभी दो माह पूर्व आयरलैंड देश में हुए समलैंगिकता के विषय पर हुए जनमतसंग्रह को स्मरण करें। आखिर कार आयरलैंड ,जो की एक गहरा, protestant ईसाई देश है, उसने समलैंगिकता को अप्राकृतिक, अकुदरती होने के मध्ययुगी नज़रिये को त्याग ही दिया। खुद पोप भी इस विषय में कैथोलिक ईसाइयों में बदलाव लाने के तैयार हो रहे हैं। आखिर कार सब राष्ट्र अपने संप्रदाय ज्ञान से प्रकिति और कुदरत की परिभाषा को नहीं पढ़ना चाहते हैं। यही सेक्युलरिम है।
मगर लगता है की आरएसएस और भाजपा हमारे राष्ट्र को अपनी विकृत मानसिकता से आसानी से निवृत्त नहीं करने वाले हैं।
राजनीती और भाषाविज्ञान का सम्बन्ध
राजनीति छल और कपट से भरी हुई होती है। राजनीति करने में भाषा का बहोत योगदान होता है। राजनैतिक कुटिलता करने के लिए भाषा के साथ उलट फेर करने में आपको प्रवीण होना चाहिए। सफल राजनीति की बुनियाद कुटिल भाषा के प्रयोग से ही बनती है जो की भाषणों के द्वारा जनता के बीच प्रवाहित करी जाती है।
अंग्रेजी लेखक जॉर्ज ओस्वेल ने अपना एक सुप्रसिद्ध निबंध, "Politics and the English Language"( राजनीति और अंग्रेजी भाषा) , को शासन शक्ति के आपसी संघर्ष के दौरान हुए छल-कपट तथा भाषाविज्ञान के बीच सम्बन्ध को उजागर करने के लिए ही लिखा था।
असल में शब्द विचार में 'राजनीति' का अर्थ भी गलत तरीके से जनता के संज्ञान में डाला जा चुका है। हम अपने इर्द-गिर्द जिसे देखते और आभास करते है, "शासन शक्ति के आपसी संघर्ष के दौरान हुए छल-कपट", वह राजनीति नहीं वरन कूट अभ्यास, या कूटनीति(realpolitik), पुकारा जाना चाहिए। राजनीति का शाब्दिक अर्थ होता है ''अच्छा , सुशासन चलाने वाली नीति"। जाहिर है की जनता को छल, कपट और 'उल्लू बना कर' प्राप्त करी गयी शासन शक्ति से आये व्यक्ति उस जनता का भला करने वाले तो नहीं है। वह कूटनीति ही करेंगे, राजनीति नहीं। मगर उल्लू बनाने के सार्थक प्रयास में वह अपने कार्यों को भी "राजनीति" शब्द से पुकारते है।
तो इस प्रकार कूटनीति और भाषाविज्ञान सम्बन्ध की महत्वता सर्वप्रथम "राजनीति" शब्द से ही आरम्भ होती है।
कूटनीति करने में एक आवश्यक वस्तु होती है अशिक्षित जनता। इसलिए ऐसा समझ जाता है की जहाँ शिक्षा होगी वहां कूटनीति नहीं करी जा सकेगी। मगर भाषाविज्ञान की गहराईयों से देखें तब समझ में आएगा की कूटनीति से समाज और राष्ट्र की रक्षा करने के लिए आवश्यक वस्तु शिक्षा का प्रसार नहीं वरन अंतरात्मा की जागृति है। ऐसे बहोत सारे देश हैं जहाँ शिक्षा का जनसँख्या में प्रसार बहोत अग्रिम है, मगर इसके बावज़ूद वह कूटनीति के प्रभावों से वह अपने समाज और राष्ट्र की रक्षा नहीं कर पाये हैं।
भाषाविज्ञान, यानि Linguistics, मानवीयता अध्ययन में उपलब्ध विज्ञान की एक शाखा है जिसमे की हम शब्द (lexicon), उसके चिन्ह(symbol), उसके सन्दर्भ(context), उसके प्रयोग से वाक्य रचना की नियमावली(syntax), और प्रतिचिन्हित अर्थ की सत्यता (truthfulness of the meaning, semantics), और प्रसंग में उपलब्ध अर्थ (pragmatics) , इत्यादि का अध्ययन करते हैं। भाषाविज्ञान(linguistics) का अर्थ साधारण तौर पर स्कूलों में पढ़ाये जाने वाले व्याकरण (grammar) शब्ध से बिल्कुल भिन्न है।
भाषा का प्रयोग इंसानों में तमाम जीव जंतुओं से बिलकुल विशिष्ट कौशल है। भाषा का सम्बन्ध चैतन्य से है। और चैतन्य ही अंतरात्मा होती है। सिर्फ इंसान ही एक ऐसा जीव है जिसमे सही-और-गलत में भिन्न करने की क्षमता होती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि मनुष्य की अपने इस कौशल का प्रयोग अपने सामाजिक सहवास में आवश्यक पड़ता है। तो छल और कपट को अंजाम देने के लिए किसी व्यक्ति को सर्वप्रथम आवश्यकता पड़ेगी इंसान के चैतन्य को निम्म करने की। और चैतन्य को निम्म किया जा सकता है भाषा के भ्रमकारी प्रयोग से। यानि चार पैर और एक सूंड वाले जानवर को 'घोडा' पुकार कर, बदले में चार पैर वाले तेज़ दौड़ने वाले जानवर जो 'हाथी' पुकार कर। जो समाज चैत्यनवान होगा वही यह पकड़ पायेगा की यहाँ शब्द और उसके सूचक अर्थ में हेर-फेर करी गयी है।
उत्तर भारत में "समाज" शब्द प्रयोग करके कूटनीति करने वाली पार्टियों का समाजवाद या समाज से कोई लेना देना नहीं है। यहाँ 'समाज' शब्द 'जाति' शब्द के पर्याय के प्रयोग हुआ है। और इनकी राजनीति भी जात-पात के इर्द-गिर्द प्रभावी होती है।
इसी तरह हिन्दू और हिंदुत्व का प्रयोग करने वाली पार्टियों की खुद की समझ धर्म और व्यवहारिक संस्कृति के प्रति एकदम निम्म है , और वह किसी दूसरे समुदाये की प्रति घृणा के आधार पर अपनी कूटनीति करती हैं।
इसी तरह सेकुलरिज्म के नाम पर कूटनीति करने वाली पार्टी का वास्तविक सेकुलरिज्म से कोई लेना देना नहीं है, और वह वास्तव में किसी समुदाये के तुष्टिकरण को जायज़ करने के लिए सेकुलरिज्म के विचार को प्रयोग करती हैं।
नकली सेकुलरिज्म का विरोध करने वाली पार्टी को प्रजातंत्र और सेकुलरिज्म के अटूट सम्बन्ध का ज्ञान नहीं है, और वह सेकुलरिज्म के विरोध करती हुयी आज खुद अप्रजातान्त्रिक नेतृत्व का बोझ उठा रही है।
प्रजातंत्र की बात करने वाली पार्टी खुद वंशवाद पर टिकी हुयी है।
इन सब शब्द और विरोधाभासी आचरणों के पीछे का मूल कारण है भाषाविज्ञान का विक्सित न होना। भाषा और सटीक शब्द हम इंसानों को प्रेरित करते हैं सही विचार पर मंथन करने को। तो अगर हमारे इर्द-गिर्द कोई घोड़े को हाथी और हाथी को घोडा पुकारेगा तब हम स्वयं ही भ्रमित हो जाने लगेंगे किसी शब्द और उससे सलग्न उसकी प्रकृति के सम्बन्ध के विषय में। यह सही है की शब्द के हेर फेर से उस वस्तु की मूल प्रकृति नहीं बदल जाती है ( a rose will still smell as sweet, nomatter what name you call it), मगर इंसानी चैतन्य में किसी शब्द और उससे प्रतिसूचित प्रकृति के ज्ञान में भ्रम जरूर उत्पन्न किया जा सकता है।
भाषाविज्ञान का विषय इसी कमी और रोग का निवारण करने में लाभदायक सिद्ध हो सकता है।
समाजवाद, यानि Socialism, का विरोध करने वाले खुद "अच्छे दिन" का वादा करके सत्ता सुख भोग रहे हैं। अगर समाजवाद घृणाप्रद विचार है तब फिर कोई उनसे पूछे की वह "अच्छे दिन" को कैसे परिभाषित करेंगे ? बरहाल, समाजवाद का विरोध करते हुए वह खुद जिस प्रकार का भूमि अधिग्रहण अधिनियम लाये है, वह "सोशलिज्म" की परिधि से कितना समीप या दूर है, यह जागृत चैतन्य के लिए एक साधारण सवाल है। आवश्यकता बस यह है की चैत्यन जागृत होना चाहिए की "socialism" मूलतः है क्या ।
वैसे तो इंसान गलती करते हुए ही बना है मगर इसकी बनावट की असल खासियत इसमें खुद अपनी भूल का सुधार कर सकने की क्षमता है। हम अपनी भूल का सुधार इसी लिए कर पाते हैं क्योंकि हममे एक चैतन्य या अंतरात्मा विराजमान होती है जो की अंदर से ही हमें सही और गलत की जानकारी देती रहती है।
स्वच्छता(cleanliness, hygiene) से व्यवस्था(orderliness) आता है, और फिर शुद्धता(purity) आती है। शुद्धता से पवित्रता(holiness) आती है और उसमे से दिव्यता(divinity) आती है। इस पूरे क्रम का प्रेरक होता है हमारा चैतन्य। यदि भाषाविज्ञान की अनुपलब्धता के चलते चैतन्य निंद्रा में रह जायेगा तब लाख झाडू चला कर भी स्वच्छता नहीं प्राप्त होने वाली है। इसके सलग्न में हम यह भी कह सकते हैं की बिना शुद्ध शब्द और भाषा के हम एक जागृत चैतन्य को प्राप्त नहीं कर सकते हैं।
सर्वप्रथम आवश्यक वस्तु है की हम भाषाविज्ञान में विकास करना आरम्भ करें। वही से शायद हमें छल-कपट वाली सामाजिक क्रीड़ा, यानि कूटनीति, से मुक्ति मिल सकती है।
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