An ocean of thoughts,earlier this blog was named as "Indian Sociology..my burst and commentary". This is because it was meant to express myself on some general observations clicking my mind about my milieu...the Indian milieu. Subsequently a realisation dawned on that it was surging more as some breaking magma within . Arguments gave the heat to this molten hot matter which is otherwise there in each of us. Hence the renaming.
यह युग उद्यमियों का युग है, कृषकों का युग नहीं है यह
Enterprising skills हैं ही क्या ?
उद्यमी वही व्यक्ति हो सकता है जिसके चरित्र में ही हो -- नए , अपरिचित , अपरीक्षित वस्तुओं और विचारों का तुरंत उपयोग करे।
आम व्यक्ति जो कि श्रमिक प्रकृति के होते हैं, वह शारीरिक परिश्रम करके भोजन करके सो जाना पसंद करते हैं। वह खोज करने या नित नए प्रयोग करने में समय को व्यर्थ करना समझते हैं। वह दैनिक कार्यों में संघर्षशील रह जाते है और नए - अनुसंधान, आविष्कार, अन्वेषण - कभी भी नहीं कर पाते। सामाजिक इतिहास से देखें तो वह ' कृषक ' (agragarian) प्रकृति के लोग कहे जा सकते हैं।
और जिनका चरित्र ऐसा नहीं होता, वही उद्यमी(entrepreneur) होता है। उद्यमी होना कोई बुरी बात नहीं है। उद्यमी कहीं भी कुछ नए की तलाश में होता है। कृषक किस्म के लोग शारीरिक परिश्रमी होते हैं, और इसीलिए वह उद्यमी भी नहीं होते हैं; (दोनों बातों के जोड़ पर ध्यान दीजिए)। कृषक समय के बदलाव को न तो क्रियान्वित करते हैं और न ही खुद को समय के अनुसार बदल पाते हैं। तो वह पिछड़े भी बन जाते हैं।
उद्यमी इसके विपरित हैं।
सोलहवीं शताब्दी से जो औद्योगिक क्रांति में मशीन का इजाद हो गया, तब से दुनिया वैसे भी कृषक विरोधी हो चली है। ध्यान रहे कि कृषक का अभिप्राय सिर्फ हल जोतने वाले किसान से नहीं है, बल्कि हर उस कार्य-प्रकृति वाले शख्स से है जो कि उद्यमी स्वभाव का नहीं है, यानी जो कि शारीरिक परिश्रम के बल पर जीवनावश्यक संसाधन प्राप्त करता है, - यानी जो कि खेतीबाड़ी करता है, या पशुपालन , मत्स्य पालन, या की वर्तमान काल का professional - सूचना प्रौद्योगिकी, डॉक्टर, इंजिनियर, प्रबंधक(manager) , carpenter (बढ़ई), masion (राज मिस्त्री), इत्यादि है।
जी हां, professional भी कार्य की प्रकृति से समझें तो 'कृषक' ही होता है। क्योंकि वह भी जीवनयापन संघर्ष करता है , और जीवनयापन के लिए वह भी किसान की भांति बहोत पतली सी 'वर्षा' धारा पर ही गुजरा करता है। यदि कुछ अभागा घट जाए तो professional भी किसान की ही भांति घोर आर्थिक संकट में आ जाता है।
उद्योगियों को इस युग में जीवनयापन के लिए बहुत सारे आय के स्रोत होते हैं। वह सिर्फ एक आमदनी पर निर्भर नहीं होते हैं। इसलिए वह आसानी से आर्थिक संकट में नहीं आते हैं। कभी कभी तो यदि कुछ अभागा घट भी जाए तो उससे भी शायद मुनाफा कमा लेते हैं।
कृषक लोग सोलहवीं शताब्दी से पहले के समयकाल में उद्योगी लोगो से अधिक खुशहाल लोग होते थे। क्योंकि कृषकों के पास ही अधिक शारीरिक बल और भूमि होती थी। उस युग में सामाजिक जीवन के लिए सबसे आवश्यक वस्तु भोजन था, जो कि भूमि के भोग में किसान और पशुपालन से प्राप्त होता था। व्यापारी तब राजा को कर चुकाते थे और अभिवादन करते थे।
सोलहवीं शताब्दी में ब्रिटिश विज्ञानी जम्स वॉट की अनजाने में पानी उबालते हुए हुई एक खोज से steam engine का आविष्कार हो गया। बस यही से दुनिया की सामाजिक और राजनैतिक जगत की ऐसी उथल पुथल हुई कि जो कलयुग चालू हुआ तो सब कुछ पूर्ण विपरीत हो गया। एक वैसा कलयुग जैसा कि हम संत कबीरदास जी के दोहे में पढ़ते सुनते आए हैं - राम चन्द्र केह गए सिया से...।
मशीनों की खासियत यह है कि वह बिना थके, बहुतायत उत्पाद कर सकती हैं। तो अगर समाज को खपतखोरी की लत लगवा दी जाए तो मशीनों के मालिक, कारखाने के मालिक मालामाल हो जाते हैं।
पहले आरंभिक काल में सिर्फ कारखानों के मालिक लाभ में थे। फिर धीरे धीरे खपतखोरी की लत ने नए उद्योगों को जन्म दिया जिनमें कि कारखानों के उत्पाद छोटे उपकरण बन गए।
अब नए युग में उद्योगी - किसी भी किस्म का उद्योग - सबसे अधिक लाभ में हैं।
प्रजातंत्र के आ जाने से उद्याेगीयों को प्रचार उद्योग के माध्यम से सीधे-सीधे राजनीति में प्रवेश के द्वार भी खुल गए। तो जहां पहले व्यापारी वर्ग अपने राजा का अभिनंदन करते थे, आज व्यापारी खुद ही 'राजा' (प्रजातंत्र के मंत्री, प्रधानमंत्री, गणराज्य राष्ट्रपति, इत्यादि,) भी बन चले हैं।
व्यापारी को सामाजिक हित समझ नहीं आता है। इसमें दिक्कत यह है कि आर्थिक लाभ और सामाजिक हित के सिद्धांत और विचारों के धागे आपस में इतने उलझे तानाबाना बनाते हैं की पूर्ण स्पष्टता से किसी को समझाए भी नहीं जा सकते हैं। सिद्धांतों में व्यापारिक मुनाफा और सामाजिक हित वैसे तो अलग होते हैं, मगर धरातल पर खरा - खरा, अलग करना असम्भव सा हैं।
तो व्यापारी वर्ग(mercantilist class) की नजरों से मुद्रिक लाभ को ही आर्थिक विकास समझते हैं, और आर्थिक विकास से सामाजिक उत्थान की बात तो पहले से ही होती आई है।
सिद्धांतों से समझें तो सामाजिक उत्थान में नैतिकताओं का उत्थान भी हुआ करता था। मगर इस युग में तो नैतिकता भी धर्मगुरु उद्योग में परिवर्तित हो गई है और उद्योगीयों के मुनाफे वाले कृत्यों को ही नई नैतिकता में परिवर्तित कर रही है। उद्योगी नैतिकता में वह सब आता है जिससे मुनाफा आ सके - यानी इसमें असमानता है, विषमता है, भेदभाव है, शोषण है, छल कपट है, मक्कारी है, झूठ-फरेब है, पाखंड है, क्योंकि इन सब से मुनाफा आता है।
पकड़े जाने पर प्रचार उद्योग के माध्यम से उद्याेगी लोग सब कुछ कुप्रचार करके छिपा सकते हैं। जनता को भ्रमित कर देते हैं।
कृषकों के लिए यह युग एक अभागा काल है।
Featured Post
नौकरशाही की चारित्रिक पहचान क्या होती है?
भले ही आप उन्हें सूट ,टाई और चमकते बूटों में देख कर चंकचौध हो जाते हो, और उनकी प्रवेश परीक्षा की कठिनता के चलते आप पहले से ही उनके प्रति नत...
Other posts
-
समालोचनात्मक चिंतन (= सम + आलोचना + त्मक , अर्थात, सभी पक्षों या पहलुओं की समान(=बराबर) रूप में आलोचना करते हुए उनको परखना , उनके सत्य होने ...
-
मेरा खयाल है कि हमें बारबार इतिहास कि ओर इसलिए भी देखना पड़ जाता है क्योंकि हमारी वर्तमान काल की कई सारी समस्याओं के मूल को समझने की दिक्कत ...